शिक्षक की नज़र में चुनाव प्रत्याशी
देश को चलाने में शिक्षकों का भी राजनीति में कहीं न कहीं विशेष योगदान रहा है उदाहरणस्वरूप चाणक्य भी शिक्षक ही थे जिन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य के हाथ में शासन की बागड़ोर सौपी थी, ऐसे बहुत से उदाहरण है भारतीय संस्कृति में जहां आपको राजनीति के परिपेक्ष्य में शिक्षकों की भूमिका का वर्णन मिल जाएगा।
शिक्षक की नज़र में चुनाव प्रत्याशी कैसा हो इस बात के लिए मै अग़र कोई तरज़ीह रखना चाहूं तो अवश्य ये बात प्राचीन काल से प्रारम्भ होंगी। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की ओर उन्मुख होने पर ये स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि भारत जैसे लोकतंत्र पर आधारित देश में अग़र राजनीति सही दिशा में हो तो उसमें सभी शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों में निर्भीकता, निडरता और स्पष्टवादिता के गुण समावेशित करने होंगे। यदि हम ईसा पूर्व घटनाओं का भी अवलोकन करें तो हम ये पाते है कि देश को चलाने में शिक्षकों का भी राजनीति में कहीं न कहीं विशेष योगदान रहा है उदाहरणस्वरूप चाणक्य भी शिक्षक ही थे जिन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य के हाथ में शासन की बागड़ोर सौपी थी, ऐसे बहुत से उदाहरण है भारतीय संस्कृति में जहां आपको राजनीति के परिपेक्ष्य में शिक्षकों की भूमिका का वर्णन मिल जाएगा। वर्तमान में पोलिटिकल एजेंडा ऑफ एजुकेशन, कृष्ण कुमार द्वारा लिखित पुस्तक का भी यदि अवलोकन किया जाए तो पाठक ये समझ सकेंगे कि शिक्षा और शिक्षक किस प्रकार राजनीति को प्रभावित कर अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकते है। शिक्षा और समाज के सम्बंध में शिक्षक और राजनीति अन्योन्याश्रित होकर किस तरह से किसी भी देश के लोकतंत्र में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकते है स्पष्ट है कि जब शिक्षक स्वयं सही ग़लत के प्रति जागरूक होंगे तभी समाज में भी महत्वपूर्ण बदलाव ला सकेंगे।
जॉन डीवी द्वारा बताए गए शिक्षा के त्रिआयामी या त्रिध्रुवी प्रक्रिया में शिक्षक की महती भूमिका होती है अर्थात किसी भी लोकतन्त्रीय समाज में शिक्षक वो धुरी है जो देश के भविष्यनिर्माता और भावी नागरिकों के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान देते है। देश का चाहे कोई भी व्यक्ति हो, किसी भी व्यवसाय से सम्बंधित हो, किसी भी क्षेत्र से सम्बंधित ही क्यों न हो उसके जीवन में किसी न किसी शिक्षक का विशेष महत्व होता है इसलिए वर्तमान में चुनावी लहर के परिप्रेक्ष्य में भी ये आवश्यक हो जाता है कि शिक्षक इस ओर क्या सोचते है?, उनकी क्या अपेक्षा है? , क्या आकांक्षा है?। हालांकि हम सभी भलीभाँति इस बात से परिचित है कि किसी भी शिक्षक का न तो कोई विशिष्ट धर्म होता है, न जात-पात, न ही कोई विशेष सम्प्रदाय, कारण ये है कि शिक्षक के लिए सर्वधर्मसमभाव और सभी के लिए एकसमान सोच रखने का दायित्वबोध होता है, विभिन्न जाति, धर्म, क्षेत्र एवं सम्प्रदायों के विद्यार्थियों के मन में उन्हें समाज में फैली विभिन्न बुराइयों और अराजकतावादी विचारधारा के प्रति सचेत और सजग रहते हुए उन्हें देश के निर्माण में उचित सोच और नियति का पालन करना सीखने की राह की तरफ़ मार्गदर्शित करना होता है।
किसी भी समाज में उचित बदलाव के लिए शिक्षा का समुचित रूप से, तार्किक रूप से और व्यक्तिगत पक्षपात से मुक्त होकर अग़र प्रयोग किया जाये तो निसंदेह हम समाज के एक बड़े भाग को लाभान्वित कर सकते है। किसी भी शिक्षक के पास उसकी क़लम ही उसकी वास्तविक ज़ुबान है जिसके माध्यम से वो न केवल अपने विद्यार्थियों को जागरूक करता है वरन समाज के अन्य सुधीजनों को, पाठकों में भी मूलभूत जागरूकता का बीज रोपित कर सकता है। इसी फ़ेर में ये जानना और भी आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान में चल रही चुनावीं प्रक्रिया में जो उचित प्रत्याशी के चयन हेतु आमजनों में जो उधेड़बुन चल रही है उसके प्रति शिक्षक वर्ग जो कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग माना जाता है वो क्या कहना चाहते है कि लोगों को चुनाव प्रत्याशी चुनते समय क्या ध्यान देने योग्य मूलभूत बातें है और क्या नहीं। चूंकि मतदान सबका व्यक्तिगत मामला है और हर किसी की व्यक्तिसापेक्ष सोच हो सकती है और हर वर्ग को हर व्यक्ति को ये अधिकार है कि वो अपना प्रत्याशी जिसे भी चाहें चुन सकता है। इस विषय पर मै बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि आप सभी स्वछंद है किसी भी व्यक्तिविशेष को वोट देने हेतु, पर पहली और प्राथमिकता पर आधारित बात ये कि मतदान अवश्य दे और अन्य लोगों को भी प्रेरित करें। दूसरी बात, चुनाव में चयन के महत्व पर, मै कक्षा के ही उदाहरण के आधार पर कहना चाहूँगी कि जिस तरह किसी कक्षा विशेष के मॉनिटर के ग़लत चयनित हो जाने से समस्त कक्षा अस्तव्यस्त हो जाती है और अव्यवस्था फ़ैल जाती है यहाँ तक कि कोई भी सूचना और महत्वपूर्ण कार्य आसानी से करना सम्भव नहीं हो पाता है ठीक उसी प्रकार किसी भी देश में और राज्य में जब महत्वपूर्ण पदों का चुनाव हो रहा होता है तो ग़लत चयन से आगामी सभी योजनाएं और गतिविधियां भी उससे प्रभावित होने लगती है, अर्थात लोकतन्त्रीय समाज में जहां जनता का, जनता के लिए जनता के द्वारा मनोनयन होना होता है वहां क्या सही है क्या नहीं इस ओर ध्यान अवश्य देना चाहिए।
शिक्षा वह हथियार है जिसके माध्यम से हम समाज को उचित दिशा दे सकतें है और शिक्षा के ज्ञानमीमांसिय दृष्टिकोण के ज़रिए यदि न्यायदर्शन के चश्में से देखा जाए तो सही ग़लत के बीच भेद करने के विभिन्न उपकरणों का खाका महर्षि गौतमी ने पूर्व में ही खींच रखा है। प्रत्याशी जो भी चुनें, वो शिक्षित हो उसे शिक्षा के प्रति, समाज के प्रति, शिक्षणार्थियों के प्रति भी महत्वपूर्ण ध्यान देने होंगे तभी वो सम्पोषित विकास लक्ष्य 2030 के तहत बनाये गए लक्ष्यों को भी पूरा कर सकेंगे अन्यथा उत्तर भारत के बुजुर्गों द्वारा दिये गए उदाहरण दोहराए जा सकते है "एक अगुआकर बिना नौ सौ जुल्हा डूब मरे" अतैव हमें तर्कसंगत ढंग से चुनाव तथा चुने जाने वाले व्यक्ति के बारें में सोचना पड़ेगा। तथा इसी के बरक्स हम शिक्षा पर व्यय होने वाले बजट की ओर अगर ध्यान दे तो इसे हमारा दुर्भाग्य कहे कि हर बजट में शिक्षा के लिए बनाया गया बजट सर्वप्रथम अंश में बहुत कम होता है और जितना होता भी है उसके माध्यम से शिक्षण प्रक्रिया का किर्यान्वयन भी समुचित रूप से नहीं हो पाता है अपवादस्वरूप कोठारी आयोग का जिक्र करना यहाँ उचित प्रतीत होता है कि आधी शताब्दी तक भी उनके द्वारा शिक्षा पर बताये गए व्यय 6 प्रतिशत को भी मात्र कागज़ी कार्यवाही तक ही सीमित रखा गया जिसे हम नई शिक्षा नीति 2020 में भी कागजों में ही देख पा रहे है, अब आगामी चुनाव इस बात की पुष्टि करेगा कि ये प्रतिशत 1968, 1979, 1986 की तरह ठंडे बस्ते में ही जाएंगी या अपने लक्ष्य को भेदकर अनवरत चल रही परिपाटी को एक नया रूप दे सकेंगी।
चूंकि मै एक शोधकर्ता हूँ तो शोध के दृष्टिकोण से अग़र अपनी बात समझाना चाहूं तो प्रत्याशी चुनते समय हमें पक्षपातरहित तथा प्रत्याशी ऐसा हो जो उचित गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाला हो इन महत्वपूर्ण बातों का भी ध्यान रखना चाहिए अन्यथा जैसे उपर्युक्त इन गुणों के अभाव में कोई भी शोध निरर्थक और दिशाहीन हो जाता है ठीक वैसे ही हमारे समाज में फ़ैली व्यवस्था भी कहीं न कहीं प्रभावित होने लगती है। ये समझना आवश्यक हो जाता है कि आख़िर सही का चयन करें तो कैसे? मूल्यांकन के लिए आज समाज में सभी अपने अपने पैमाने, पॉलिसी और परियोजनाओं का अंबार लिए है तो ऐसे में बिना दिग्भ्रमित हुए सही का मूल्यांकन करते समय हमें स्वार्थ और व्यक्तिसापेक्ष हो रहे फायदों पर ध्यान देने के बजाय समाज के सापेक्ष पड़ने वाले दूरगामी परिणामों पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा।
अर्चना पाल
शोधकर्ता
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।