हर तस्वीर अधूरी है (महकती रचनाएं)
अनगिनत लम्बी यादों के उतार चढ़ावों से भरीं जिन्दगी में बहुत कुछ गुजरा जैसे … कुछ फाँस सी चुभकर असहनीय पीड़ा मिली, कभी अनंत ख़ुशी मिली, कभी दर्द मिला, कभी उसकी मुस्कराहट पर मुखरित हो गई गजल, कभी कविता, कभी मन यूँ ही गुनगुनाने लगा
अनगिनत लम्बी यादों के उतार चढ़ावों से भरीं जिन्दगी में बहुत कुछ गुजरा जैसे … कुछ फाँस सी चुभकर असहनीय पीड़ा मिली, कभी अनंत ख़ुशी मिली, कभी दर्द मिला, कभी उसकी मुस्कराहट पर मुखरित हो गई गजल, कभी कविता, कभी मन यूँ ही गुनगुनाने लगा……. मैंने आज तक भगवान को नहीं देखा लेकिन मैंने तुझमें उसे हमेशा पाया, क्योंकि तुमने मेरा तब साथ दिया जब बाकी सारी दुनिया ने मेरा साथ छोड़ दिया था l यही कारण है कि दिन पर दिन धूप में छाँव सी ठंडक पहुंचाने वाली मन की इच्छाओं का यह काफिला शब्द बन कागज़ पर महक गया l तेरी यादों के कुछ सुरीले, सुखद क्षण, मेरे हिस्से की प्रीत बन गए l तो फिर गाहे बगाहे मन मचलने लगा कि कुछ ऐसा हो जाए जो पूरी कायनात पर राज़ कर सकूँ …… अपने मन में उठे विचारों को इन रचनाओं के जरिये आप तक पहुंचा रही हूँ…… |
(1-) मृगतृष्णा सी छलती घूमे, ये कैसी कस्तूरी है ?
अब तक जो कथा अधूरी है, बस वो मेरी मजबूरी है
सच की महिमा बाहर आये, तो करना तर्क जरूरी है
खुली सियासत बैठ के खेले, इन्हें होती नहीं सबूरी है
धन दौलत के प्यादों की, यहाँ खून से सनी तिजोरी है
कुर्सी-कुर्सी करते-करते, मजबूरों के हाँथ से छीनी रोटी है
इनका हो जाता है पतन तभी, इन पर चढ़ती जब अंगूरी है
तन और धन की प्यास न बुझती, ये कैसी मजबूरी है
इन बेपैन्दों की क्या बात करूँ, जिनकी हर हरकत लंगूरी है
छप्पन छुरी, बहत्तर पेंच उसमें, इसलिए चलती छप्पन छुरी है
जिस्म में ज़मीर रहे ना रहे, जेब में रूपया होना बहुत जरूरी है
इन्हें चढ़ते हैं छप्पन भोग थाल के, कभी चांदी वर्क गिलौरी है
हित अनहित भी नहीं सूझता, मृगतृष्णा सी ये कैसी कस्तूरी है
चैन-ओ-सुकूं से घर के भीतर नींदे, अब लेना बहुत जरूरी है
भटक ना प्राणी, मृगतृष्णा सी छलती घूमे, ये कैसी कस्तूरी है
ये चिलमन और वो चिलमन सबकी हर तस्वीर अधूरी है
बफादारी की क्या बात करूँ, ये तो अब केवल दस्तूरी है !
(2-) बूढ़े बरगद की आँखें नम हैं
गाँव गाँव पे हुआ कहर है, होके खंडहर बसा शहर है
बूढा बरगद रोता घूमे, निर्जनता का अजब कहर है
नीम की सिसकी विह्वल देखती, हुआ बेगाना अपनापन है
सूखेपन सी हरियाली में, सुन सूनेपन का खेल अजब है
ऋतुओं के मौसम की रानी, बरखा रिमझिम करे सलामी
बरगद से पूंछे हैं सखियाँ, मेरा उड़नखटोला गया किधर है
सूखे बम्बा, सूखी नदियाँ, हुई कुएं की लुप्त लहर है
निर्जन बस्ती व्यथित खड़ी है, पहले सुख था अब जर्जर है
शहर गये कमाने जब से, गाँव लगे है पिछड़ा उनको
राह तके हैं बूढ़े बरगद, व्यथित पुकारे विजन डगर है
कैसी ये ईश्वर की लीला न्यारी, मन में मेरे प्रश्न प्रहर है
तोड़ के बंधन माँ का आंचल, इनके लिए बस यही प्रथम है
घर-घर दिल हैं लगे सुलगने, बच्चों की किलकारी कम है
उजड़ गयी कैसे फुलवारी, पहले घर था अब बना खण्डहर है …
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक