एकाकीपन (कविता)

जो रेत की तरह सरक गये मुट्ठी से, क्या वापस आ सकते हैं? घड़ी की टिक-टिक पर जब वक्त को उधेड़ती हूँ, शनैः शनैः जब पन्नो को पलटती हूँ, हाथों की उंगलियों से.......

एकाकीपन (कविता)
विनीता अग्रवाल अध्यक्ष / आकृति फाउंडेशन, अग्रवाल विकास परिषद जिला प्रवक्ता / करनी सेना कानपुर
एकाकीपन (कविता)

तनाव के क्षणों में जब भी खुद को अकेला महसूस करती हूँ,

हाथों का तकिया बना सांसों को गिना करती हूँ

सिसकती हूँ सहमती हूँ सोंचती हूँ, उन लम्हों को,

जो रेत की तरह सरक गये मुट्ठी से,  क्या वापस आ सकते हैं?

घड़ी की टिक-टिक पर जब वक्त को उधेड़ती हूँ,

शनैः शनैः जब पन्नो को पलटती हूँ, हाथों की उंगलियों से,

तो शोरगुल में भी सन्नाटे को समेटती हूँ,

आंखों के पोरों से आंसुओं को पोछती हूँ,

हाथों का तकिया बना, सांसों को गिना करती हूँ

एकाकीपन के खोखले झरोखों से जब बाहर झांकती हूँ,

 कुछ धुंधले से एहसासों के साथ,

सपनों को फिर से बटोरती हूँ,

जब भी छतों के कोनो पर रह गये कुछ जालों पर पड़ती है नजर,

जीवन के जालों को भी हौले-हौले बुहारती हूँ,

उम्र की इस दहलीज़ पर, धूमिल होती नजरों से,

धुंधली यादों को कुरेदती हूँ, ममता का आँचल,

वह अल्हड़पन, वह बचपन, जब बेतुकी बातों पर हंसते

खुली पलकों से हृदय की दराजों में रखती हूँ,

सहेजती हूँ पुनः उसी जीवन क्रम में खोने के लिए,

तनाव क्षणों जब भी खुद को अकेला महसूस करती हूँ

खिलखिलाकर अब मुस्कुराया करती हूँ।

विनीता अग्रवाल
अध्यक्ष / आकृति फाउंडेशन, अग्रवाल विकास परिषद
जिला प्रवक्ता / करनी सेना कानपुर