विशेष संपादकीय : बसपा के अस्तित्व को लेकर भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा संकट, उत्तर प्रदेश चुनाव में बीएसपी महज 1 सीट पर सिमट गई

बसपा के पास कभी आरके चौधरी, सोनेलाल पटेल, बाबू सिंह कुशवाहा जैसे नेता हुआ करते थे, लेकिन इन सबको धीरे-धीरे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था l सिर्फ एक नेता रह गई l इसीलिए इस पार्टी से सबकी उम्मीदें खत्म हो गईं l....

विशेष संपादकीय : बसपा के अस्तित्व को लेकर भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा संकट, उत्तर प्रदेश चुनाव में बीएसपी महज 1 सीट पर सिमट गई
उत्तर प्रदेश में बसपा का अस्तित्व

लखनऊ : चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकीं मायावती की पार्टी को इस चुनाव में महज 1 सीट मिली है। लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश की सियासत में बहुजन समाज पार्टी को खत्म मान लिया गया था l जिस तरह से पूरे समय मायावती मौन साधे रहीं, उसके बाद राजनीतिक पंडितों ने मायावती की सियासत के खत्म होने की भविष्यवाणी भी कर दी थी l देखा जाये तो बहुजन समाज पार्टी आपसी खींचातानी की बजह से प्रभावित हुई है।

बसपा की हार का सबसे बड़ा मुख्य कारण ये था कि विपक्ष के रूप में पिछले पांच सालों के दौरान बसपा गायब रही l मायावती प्रदेश के बड़े से बड़े मसले पर चुप्पी साधे रहीं l पार्टी के नेताओं को बोलने की आजादी नहीं दी गई l ऐसे में विपक्ष के रूप में बसपा को अपनी भूमिका के लिए लोकसभा चुनावों में सबक मिल चुका था लेकिन बसपा ने उससे कोई सीख नहीं ली

चुनाव तारीखों के ऐलान के साथ सबसे बड़ा सवाल था कि बहुजन समाज पार्टी कहां है ? बसपा ने इससे पहले कभी ऐसी चुप्पी नहीं साधी थी और यह अप्रत्‍याशित भी था। बहुजन समाज पार्टी की चुप्पी की क्‍या वजह थी  और इसका फायदा किसको हो सकता था । सुप्रीमो कुछ चुनावी सभा के जरिए अपनी मौजूदगी का अहसास करा महज खानापूर्ति ही करतीं रहीं l बीएसपी ने चुनाव प्रचार में देर से एंट्री कर सिर्फ एक सीट पर सिमट कर रह गई l

  • पार्टी जवलंत मुद्द्दों को उठाने में नाकाम रही
  • सत्ता में आने के बाद पुराने लोगों को एक-एक करके निकाल दिया गया, जिसका खामियाजा आज के चुनाव परिणाम में दिखाई दे रहा हैl
  • मायावती ने बसपा को पूरे प्रदेश की पार्टी बनाने के बजाय कभी दलित-ब्राह्मण गठजोड़ तो कभी दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे नैया पार करने की कोशिश की l

  • बसपा पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि पैसे लेकर टिकट दिए जाते हैं. पार्टी प्रमुख मायावती महिला होने के बावजूद भी पार्टी ने टिकट देने के मामले में महिलाओं से दूरी बना रखी l

  • चंद्रशेखर आज़ाद की भीम आर्मी ने बसपा के वोटों में सेंधमारी की l
  • भीम आर्मी मायावती पर दलितों पर अत्याचारों की अनदेखी किये जाने के आरोप  लगाती रही l

बसपा के पास कभी आरके चौधरी, सोनेलाल पटेल, बाबू सिंह कुशवाहा, स्वामी प्रसाद एवं दद्दू प्रसाद जैसे नेता हुआ करते थे, लेकिन इन सबको धीरे-धीरे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था l सिर्फ एक नेता रह गई l इसीलिए इस पार्टी से सबकी उम्मीदें खत्म हो गईं l अब न इस पार्टी के साथ दलित रहे न ओबीसी (OBC) और न मुस्लिम l जिसकी वजह से आज बहुजन समाज पार्टी की ये हालत हो गई.

गौरतलब हो कि दलितों की कुल आबादी लगभग सोलह फीसदी है जो हजारों जातियों में बंटे हुए हैं क्या इनके इतने से वोट से चुनाव जीता जा सकता था? पिछड़ा वर्ग को इसमें जोड़ा गया क्या कोई इकरारनामा हुआ था? पिछड़ा वर्ग स्वयं अपनी लडाई नहीं लड़ पा रहा है वो कहाँ से साथ देता? वो भी हजारों जातियों में बंटे हुए हैं.

राजनीति में कौन सा पासा या कौन सी चाल उल्टी या सीधी पड़ेगी ये तो जनता के हाथ में था l हालांकि मायावती ने इस कड़ी में साफ किया था कि बड़े-बड़े स्मारक और प्रतिमायें नहीं बनवाई जाएंगी, केवल विकास पर ही काम होगा l मायावती ने अपने बयानों से उत्तर प्रदेश में थोड़ी हलचल तो जरूर मचाई थी l मायावती ने 2022 में दलित-मुसलिम गठजोड़ बनाने की कोशिश भी की, लेकिन वो सफल नहीं हो सकीं, योगी की आंधी में सारे समीकरण उड़ गए.

बीएसपी महज एक सीट पर सिमट गई। बीएसपी जिस एक सीट पर सिमटी वो बलिया जिले की रसड़ा सीट है। रसड़ा से उमाशंकर सिंह एक बार जीत हासिल करने में कामयाब हुए हैं। पूर्वांचल में यह माना जाता है कि उमाशंकर जीत सिंह की जीत उनकी खुद की जीत होती है।

वैसे भी राजनीति का कटु सत्य यह भी है कि जब कोई खुद को अपराजेय महसूस करने लगे l जब कोई हारता न दिखे तो उसी समय राजनीतिक घटनाक्रम या कोई ऐसा मुद्दा होता है जो मजबूत व्यक्ति या साम्राज्य के पतन का कारण बनता है

यूपी चुनाव 2022 में चारों खाने चित्त हुई बीएसपी के हाल को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं l सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर मायावती को मिलने वाले वोट गए तो गए कहां?  दरअसल राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस बार बीएसपी का वोट बीजेपी को ट्रांसफर हुआ है l यानी बीएसपी के वोट प्रतिशत कम होने का सीधा फायदा बीजेपी को पहुंचा है l यूं कहिए कि बीएसपी तो अब यूपी में पूरी तरह सिमट चुकी है l वहीं बीजेपी एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो गई है.

बसपा सुप्रीमों को अब विश्लेषण करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या कारण रहा कि जमीनी स्तर पर जनता के बीच अपनी बात रख पाने में  सुप्रीमों क्यों नाकाम रहीं । आखिर वो कौन सी वजह थी कि मजबूत उम्मीदवारों के बाद भी जीत का आंकड़ा नहीं आगे बढ़ सका ।

अब सवाल यह है कि अगर दलित समाज चट्टान की तरह खड़ा था तो बीएसपी क्यों बेहतर नहीं कर सकीं। इसे लेकर जानकारों की राय बंटी हुई है। जानकारों का कहना है कि 2007 से अब तक समाज में बड़ा बदलाव आया है। यह बात सच है कि बीएसपी ने दलित समाज में चेतना का संचार किया। लेकिन सिर्फ चेतना को जागृत करने से काम नहीं बनता। उस चेतना को दिशा देनी पड़ती है।

मायावती को यह लगता था कि 2022 के चुनाव में उनका समाज परंपरागत तौर पर मतदान करेगा। सामाजिक समीकरणों को साध कर वो चुनावी नैया पार लगा पाएंगी। लेकिन 2014 से लेकर 2022 में जिस तरह से नए लाभुक वर्ग का उदय हुआ वो धीरे धीरे बीजेपी के करीब हुआ। यह वो समाज है जिसे गैर जाटव वर्ग के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा जिस तरह से समाजवादी पार्टी की तरफ से आक्रामक रुख अख्तियार किया गया और जमीन पर मायावती नजर नहीं आईं तो बीएसपी के वोटबैंक को लगा कि मजबूत सपा उसके हित में नहीं होगी लिहाजा उन्होंने बीजेपी के साथ जाना पसंद किया और उसका असर बीएसपी की सीट संख्या पर नजर आई.

बीएसपी के सामने कई सवाल, अब कोई नेता राज्यसभा भी नहीं पहुंच पाएगा

बीएसपी अब अपने किसी भी नेता को राज्यसभा अपने कोटे से नहीं भेज पाएगी। बहुजन समाज पार्टी के राज्यसभा में सिर्फ तीन सदस्य रह गए हैं और उनमें से दो का कार्यकाल इसी साल कुछ ही महीने बाद समाप्त हो जाएगा इनमें पार्टी के नंबर दो नेता सतीश चंद्र मिश्रा भी हैं। वो भी अब राज्यसभा नहीं जा सकते।

सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक /इंडियन हेल्पलाइन न्यूज़
महिला अध्यक्ष/शराबबंदी संघर्ष समिति