विश्व पर्यावरण दिवस : पर्यावरण विनाश और संस्कार हीन विकास
प्रकृति के स्पष्ट संकेतों की अवहेलना मानव जाति और पर्यावरण पर निरन्तर भारी कहर बरपा रही है। अभी हमने"कोविड 19 या कोरोना"के रूप में प्रकृति का मुखर संदेश देखा है। "जीवन जीव + वन ( प्राणी एवं वनस्पति जगत) के सुखद संयोजन" के बिना निरापद हो ही नहीं सकता है।अंततः मानना ही पडेगा। पृथ्वी और प्रकृति है तभी पंच तत्वों से बने हमारे शरीर का ही महत्व है अन्यथा कुछ नहीं
जले विष्णुः थले विष्णुः विष्णुः पर्वत मस्तके।
ज्वाला माला कुले विष्णुः सर्वे विष्णुमयं जगत् ।।
कण-कण में जगत् नियन्ता विष्णु की व्यापकता में दृढ आस्था और विश्वास रखते वाले हम... पर्वत,नदी,वृक्ष, सभी जीवों, पशु पक्षियों के प्रति आदर सत्कार और पूजन करने वाले देश में भी यदि, पर्यावरणीय संकट की भयावहता दृष्टिगोचर हो रही है तो निश्चय ही यह एक गम्भीर चिन्तनीय विषय है।
"One Planet One Future " की संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत अवधारणा भारतीय संस्कृति और संस्कार में "वसुधैव कुटुंबकम् " के उद्घोष के रूप में रची बसी है।सबके संवर्धन से इतर और पूर्व अपने ही संवर्धन का निष्कर्ष पाश्चात्य सभ्यता का प्रमुख उत्पाद है। सुख और विलासिता के अंतर्गत में फंसे पृथ्वीलोक के वासी कृतिम सुविधाओं के लोग में प्राकृतिक सुविधाओं से हाथ धोते जा रहे हैं
इसी अविवेक पूर्ण अवधारणा ने पूंजीवाद और बाजारवाद को जन्म दिया जो कालांतर में अंध बाजारवाद के भयावह रूप में हमें ही विनाश की ओर ढकेल दे रहा है। आज के तथाकथित विनाश मूलक विकास के अधिकतर मापक और मानदण्ड वस्तुतः हमारे सुनिश्चित विनाश-यात्रा के मील के पत्थर ही है। प्रकृति का भरपूर दोहन करते हम मनुष्य अधिकाधिक कार्बन एवं विनाशक गैसों के उत्सर्जनोन्मुख विकास की ओर जान बूझ कर तेजी से बढ़ रहे हैं। विकास की अंधी दौड़ में सभ्यता और संस्कृति के मापदंडों को खोते हम
अपने को ठंडा रखने के लिए धरती माता को निरन्तर और अधिकाधिक तपाते जा रहे है। बिना यह सोचे कि हमारे वंशज इस ताप वृद्धि से कितना तपेंगे? बर्फ पिघल रही है नदियां सूख रही हैं बेस्वाद नमकीन पानी लगातार बढ़ रहा है सांस लेने के लिए गैस से जहरीली हो रही है और यह स्थिति आने वाली पीढ़ियों के लिए और भी भयावह होती दिख रही है
परिष्कृत सुविधायुक्त कारों, वातानुकूलन आदि सम्बन्धी अनेक आधुनिक उपकरणों ( जो निश्चित रूप से पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं) के अधिकाधिक उत्पादन को प्रगति का मापक मानना, आधुनिक सभ्यता के भ्रम और दिशाहीनता को ही दर्शाता है।
मेरे विचार से पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य के प्रतिकूल उत्पादन को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) से न केवल घटा देना चाहिए अपितु इसे नकारात्मक रेटिंग देकर विनाश रोकना चाहिए । न्यूनतम जीवन की सुविधाओं के यदि पर्यावरण को असुविधा उत्पन्न करने वाले उत्पादों का प्रयोग किया जाता है तो एक दंडनीय शुल्क निर्धारित किया जाना चाहिए। मनन करने पर हम देखते है की स्वास्थ्य और पर्यावरण विनाशक उत्पादों को विकास के रूप में संगणित करना न केवल भ्रामक है अपितु आत्मघाती छलवा है
यह विकास एक दिन मानव सभ्यता के लिए भस्मासुर साबित होगा।
नीति नियंताओं पर, अगली पीढ़ी को (वर्तमान मतदाता न होने पर भी) अवश्यंभावी विनाश से बचाना, अपरिहार्य दायित्व है सतत विकास की अवधारणा बेसिक स्तर के पाठ्यक्रम से शुरू होकर सामान्य जीवन की गतिविधियों में शामिल करना जरूरी है प्राकृतिक संसाधनों का सीमित दोहन और असीमित होने पर दंड का निर्धारण अति आवश्यक हो गया है।
वास्तविक विकास वही है जो स्व के साथ पर ( दूसरों) के लिए भी कल्याण प्रद हो। विश्व समुदाय की सोंच "वसुधैव कुटुंबकम् " के संस्कार से अनुप्राणित हुए बिना स्वयं की विनाश गाथा का गान आने वाले सैकड़ों साल तक विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मना कर, करती रहेगी। "सभ्यता को संस्कार वान होना ही पड़ेगा अन्यथा पश्चाताप और अंत तय ही है"।
पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों के सीमित, संयमित और विवेकपूर्ण उपभोग सतत विकास को बढ़ावा देने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को प्रकृति और शुद्धता उनके हक और अधिकार के रूप में देना हमारा कर्तव्य है। हम क्या दे रहे हैं इस पर मनन करना होगा? वर्तमान समस्या के जनक हम स्वयं और हमारा लोभ है, और इस पर अंकुश ही एकमात्र निराकरण है।
समस्या का स्वरूप अब चिन्ता और चिन्तन की सीमा से बहुत विकराल हो चुका है। अब केवल कुछ गोष्ठियों, बैठकों और रस्म अदाकारियों से आगे बढकर संगठित, सुनियोजित, आपातकालीन, ईमानदार प्रभावी कार्य (Action) करने का समय है। अन्यथा भयावह प्राकृतिक कहर से ईश्वर भी शायद हमारी रक्षा करने में असमर्थता व्यक्त कर दे। मानवता प्राकृतिक और कृत्रिम सभी प्रकार की सभ्यता को नष्ट होते मूक दर्शक की तरह देखने के सिवा कुछ ना कर सकें....
प्रकृति के स्पष्ट संकेतों की अवहेलना मानव जाति और पर्यावरण पर निरन्तर भारी कहर बरपा रही है। अभी हमने"कोविड 19 या कोरोना"के रूप में प्रकृति का मुखर संदेश देखा है। "जीवन जीव + वन ( प्राणी एवं वनस्पति जगत) के सुखद संयोजन" के बिना निरापद हो ही नहीं सकता है।अंततः मानना ही पडेगा। पृथ्वी और प्रकृति है तभी पंच तत्वों से बने हमारे शरीर का ही महत्व है अन्यथा कुछ नहीं
हम सभी को पर्यावरण विनाश में अपने व्यक्तिगत योगदान को रोक कर, इसके संरक्षण एवं उन्नयन हेतु निरंतर सजग प्रयत्न करने होंगे। यदि एक ए.सी. लगाने की क्षमता हमारे अंदर है तो 10 पेड़ लगाने की काबिलियत उन्हें पाल पोस कर बड़ा करने की दक्षता भी हम मनुष्यों को और हमारी पीढ़ियों को सीखनी और सिखानी होगी। तभी सच्चे अर्थों में विश्व पर्यावरण दिवस की अनंत शुभकामनाएं हमारे लिए साकार होगी।
रीना त्रिपाठी
प्रांतीय अध्यक्ष महीला प्रकोष्ठ
सर्वजन हिताय संरक्षण समिति